नेहरू परिवार ने जिन मुगलों की नौकरी की, महादजी सिंधिया ने उनको बना दिया कठपुतली

महादजी सिंधिया हैं इस देश के सबसे बड़े गुमनाम नायक

सिंधिया परिवार दशकों से भारतीय राजनीति में चर्चा का विषय रहा है, लोग उनके प्रभाव की, साफगोई की और भारत की दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों के नेतृत्व से करीबी की चर्चा करते रहे हैं. चर्चा उनके किले और संग्रहालय की भी खूब होती है. लेकिन ऐसा कभी नहीं देखा गया कि किसी भी पार्टी के सत्ता में रहते हुए उनके परिवार का नाम बड़े घोटाले में सामने आया हो. जबसे इस परिवार ने कांग्रेस से नाता पूरी तरह तोड़ा है, सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता की एक लाइन को लेकर कांग्रेस हमले पर हमले बोल रही है. जब खानदान का लम्बा इतिहास हो तो पेशवाओं से लेकर नेहरू-गांधी खानदान तक का चरित्र किसी एक व्यक्ति से आंकना कहां तक सही है? फिर जयाजी के नाम से ही क्यों, महादजी सिंधिया ने इस देश के लिए जो किया, उसके लिए तो हर भारतवासी को इस परिवार का शुक्रगुजार होना चाहिए

महादजी सिंधिया के लिए जदुनाथ सरकार ने लिखा था कि महादजी सिंधिया जैसे वीर की वजह से अंग्रेजों को भारत पर कब्जे में पूरे 20 साल का इंतजार करना पड़ा. उस दौर में स्वराज के लिए लड़ने वाले मराठा महावीरों में छत्रपति शिवाजी और पेशवा बाजीराव के बाद तीसरे नंबर पर महादजी सिंधिया का नाम आदर से लिया जाता है. एक ऐसा मराठा योद्धा जिसने ना केवल दिल्ली में अपनी पसंद का मुगल बादशाह गद्दी पर बैठाया बल्कि उसे जब हटा दिया गया तो उसे दोबारा भी गद्दी पर बैठाया. माता अहिल्या बाई होल्कर का नाम आज सनातन धर्मी बेहद आदर के साथ लेते हैं, काशी विश्वनाथ में उनकी प्रतिमा प्रधानमंत्री मोदी ने लगवाई है, संसद में भी हाथ में शिवलिंग लिए उनकी प्रतिमा है.

देश भर में उन्होंने जो सरोवर बनवाए, मंदिरों का जीर्णोद्धार किया, तीर्थ धामों पर धर्मशालाएं बनवाईं, सोचिए क्या ये सब उन्होंने अपनी ताकत के बलबूते किया? दरअसल महादजी सिंधिया उन्हें अपनी बहन मानते थे और एक समय पर आधे से अधिक भारत महादजी सिंधिया के नियंत्रण में था, ऐसे में महादजी की मदद के बिना ये हो नहीं सकता था. दिलचस्प बात ये भी है कि महादजी का एक नाम माधव राव भी था, जो ज्योतिरादित्य सिंधिया के पिता का नाम भी है.

दिल्ली के लोगों को भी पता नहीं होगा कि अंग्रेजों ने मुगलों से दिल्ली नहीं जीती थी बल्कि सिंधियाओं से जीती थी. 1803 में लॉर्ड लेक ने जब कब्जा किया था, तो मुगल बादशाह शाह आलम दौलत राव सिंधिया के नियंत्रण में था, और सिंधियाओं से मुक्ति की मांग के साथ अंग्रेजों से मिल गया था. उन दिनों कहावत थी कि शाह आलम का राज केवल लाल किले से पालम तक चलता है.

पानीपत का युद्ध मराठा ताकत के लिए वाटरलू समझा जाता है, ऐसे में महादजी सिंधिया वो शख्सियत थी, जिसने इस हार के सदमे से उबारने में ना केवल मराठा सरदारों बल्कि स्वराज के हितैषियों की सहायता की. ये असम्भव सा काम था और केवल दो ही अस्त्रों के भरोसे हुआ, बहादुरी और कूटनीति. पानीपत के युद्ध में सिंधिया परिवार के दो योद्धाओं ने अपनी जान दी, तुकोजी और जनकोजी, लेकिन साथियों ने महादजी को बचा लिया. राणोजी शिंदे (सिंधिया) के पांचवे बेटे थे महादजी सिंधिया, पिता पेशवा बालाजी विश्वनाथ के करीबी थे. उनकी मौत के बाद बाजीराव प्रथम के भी विश्वस्त बन गए और अपनी राजधानी उज्जैन में बनाई. कहा जाता है उन्हीं के दीवान सुखटनकर रामचंद्र बाबा शेणवी ने ना केवल महाकाल के मंदिर का पुर्निर्माण करवाया बल्कि उज्जैन में कुम्भ आयोजन की परम्परा को पुर्नजीवित किया.

महादजी सिंधिया की मुस्लिमों को लेकर वही नीति थी, जो आज बीजेपी की है, कलाम और आरिफ मोहम्मद खान जैसों को सम्मान और जाकिर नायक और मुख्तार अंसारी जैसों के खिलाफ एक्शन. रोहिल्ला पठानों और निजाम को सबक सिखाया तो ईद पर हिंदुओं को भी हरे कपड़े पहनने का आग्रह तक किया. पानीपत के युद्ध में उनकी जान भी एक मुस्लिम ने बचाई थी.

देश की राजधानी दिल्ली में सिंधिया परिवार या उनके सिपहसालारों की कई निशानियां हैं, उनके बारे में गिनती के दिल्ली वालों को ही पता है. जैसे सिंधिया के मुलाजिम अप्पा गंगाधर का बनवाया हुआ पुरानी दिल्ली का गौरीशंकर मंदिर. बाड़ा हिंदू राव अस्पताल भी महादजी सिंधिया के दत्तक पुत्र दौलतराव सिंधिया के साले हिंदू राव की हवेली में बना है. इसके ठीक सामने है सम्राट अशोक का वह स्तम्भ जिसे फीरोज शाह तुगलक दिल्ली लेकर आया था.

सिंधिया परिवार का दिल्ली वासियों के लिए एक बड़ा काम ‘तारीख ए शिंदे शाही’ में दर्ज है, यह था नीला बुर्ज से कुदैशिया बाग के पास गाजीउद्दीन के घर तक यमुना के ताजा पानी के लिए नहर बनवाना. उन दिनों दिल्ली पीने के पानी के लिए यमुना पर निर्भर थी. सिंधिया के राज में ही ना केवल लाल किले की मरम्मत करवाई गई बल्कि दिल्ली की सीमाओं पर नई चौकियां बनवाकर बाहरी आक्रमण से सुरक्षित किया गया. पटपड़गंज के युद्ध में सिंधिया की फौज अंग्रेजों से नहीं हारती, अगर उनका नायक जो एक फ्रांसीसी अधिकारी था, अंग्रेजों से हाथ नहीं मिला लेता. शायद यही वजह थी कि अंग्रेजी हुकूमत में मौका मिलने के बावजूद दिल्ली में सिंधिया परिवार ने ग्वालियर हाउस को इतना भव्य नहीं बनवाया, जितना कि बाकी रियासतों ने क्योंकि जो दिल्ली कभी उनके कब्जे में था, उसकी अधीनता में अपनी शान दिखाया उन्हें अच्छा नहीं लगा होगा.

बहुत कम लोगों को ये पता होगा कि आज जिसे दिल्ली DTC यानी दिल्ली ट्रांसपोर्ट सर्विस के नाम से जानती है, उसकी नींव भी कभी किसी सिंधिया ने ही रखी थी. जीवाजी राव सिंधिया ने अपनी मां के साथ एक बस ट्रांसपोर्ट कम्पनी ग्वालियर एंड नॉर्थ इंडिया ट्रांसपोर्ट कम्पनी (GNIT) 1935 में शुरू की थी. मई 1948 में केन्द्र सरकार ने इसका अधिग्रहण कर लिया और दिल्ली ट्रांसपोर्ट सर्विस नाम रख दिया गया, जो बाद में डीटीसी में तब्दील कर दिया गया. हालांकि जीवाजी राव आजादी से पहले अंग्रेजी हुकूमत में ही दिल्ली में रह रहे थे. इससे पहले प्रथम विश्व युद्ध के समय भी सिंधिया परिवार ने अपने एक शिप को पानी में तैरते हॉस्पिटल में तब्दील कर दिया था, ताकि उस पर घायल सैनिकों का इलाज किया जा सके. इन्हीं दिनों गांधीजी लंदन में एम्बुलेंस कोर में घायल सैनिकों की सेवा में लगे हुए थे.

आजादी के समय भी ग्वालियर रियासत से सरदार पटेल काफी खुश थे, खासतौर पर उनके वित्तीय प्रबंधन और जनता के लिए किए गए कामों के लिए. पटेल को जनता के स्वास्थ्य व अन्य जरूरतों के लिए दरबार का ‘गीतांजलि फंड’ काफी पसंद आया था. महाराज जीवाजी राव सिंधिया ने तब सरदार की एक पेंटिग भी बनवाई थी, जो अब भी संसद में लगी हुई है.

लेकिन जो काम महादजी सिंधिया ने किया, उस दौर में अंग्रेजों को एक युद्ध में हराना, दूसरे में संधि पर मजबूर करना असम्भव जैसा काम था, जबकि वो प्लासी और बक्सर का युद्ध जीत चुके थे. 6 साल से इलाहाबाद में रह रहे मुगल शहजादे शाह आलम को 1771 में महादजी का दिल्ली जीतकर गद्दी पर बैठाना कोई आसान काम नहीं था, 1788 में उसके खिलाफ विद्रोह हुआ तो फिर महादजी ने अपनी ताकत दिखाई, विद्रोहियों को कुचलकर फिर शाह आलम को बादशाह बनवाया. लेकिन ये भी सच है कि महादजी को कभी भी उतना सम्मान नहीं मिला, जिसके कि वो वास्तविक हकदार थे. पुणे में उनकी मौत के बाद बने उनके स्मारक ‘शिंदे छतरी’ पर कितने लोग जाते हैं? लाल किले घूमने जाने वाले कितने लोग महादजी सिंधिया को याद करते हैं? देश के कितने बच्चे महादजी के बारे में जानते हैं? ये वो शूरवीर है, जिसकी बहादुरी, हिम्मत और उपलब्धियों के बारे में देश को बताया गया होता तो सिंधिया परिवार जयाजी सिंधिया की गलतियों पर सफाई नहीं दे रहा होता.

वरना आज कौन नेहरू-गांधी परिवार के लक्ष्मी नारायण नेहरू की चर्चा करता है, जो दिल्ली के मुगल दरबार में पहले अंग्रेजी वकील थे, या कौन राज कौल पर उंगली उठाता है, जो एक औरंगजेब के वंशज फर्रुखसियर के दरबारी थे या गंगाधर नेहरू की चर्चा कौन करता है, जिसे नेहरू परिवार मुगल राज में दिल्ली का आखिरी कोतवाल बताते आए हैं? मोतीलाल नेहरू की अंग्रेजों से करीबी की बात कौन करता है, जिनको लेकर खुद जवाहर लाल नेहरूजी ने अपनी आत्मकथा में सफाइयां दी कि, नहीं उनको लखनऊ जेल में रोज लेफ्टिनेंट गर्वनर की तरफ से आधी बोतल शेम्पेन की बात गलत है या अंग्रेजी क्लब में सदस्यता ना मिलने के चलते अंग्रेजों के खिलाफ जाने का आरोप भी गलत है.

ये सब इसलिए क्योंकि नेहरूजी और इंदिराजी के जरिए बड़ी लकीरें खींच दी गईं. कोरेगांव की लड़ाई के खलनायक एक कमजोर पेशवा के बहाने पेशवा बाजीराव प्रथम की भी लकीरें छोटी करने की कोशिशें काफी हुई हैं. लेकिन महादजी सिंधिया ने किसी ‘गांधीजी’ का सहारा नहीं लिया, किसी ‘सरदार पटेल’ का हक नहीं मारा था, जो किया अपने बाहुबल और दूरदर्शिता से किया. सिंधिया परिवार के इस पुरखे को देश में यथोचित सम्मान क्यों नहीं मिलना चाहिए. उनकी खींची लकीर को जयाजी सिंधिया के जरिए छोटा करना गलत ही होगा.

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